Shayari
न जाने क्यों मगर इंसान
न जाने क्यों मगर इंसान कुछ यूं करता हैमौत की तरफ दौड़ता है और जिंदगी से प्यार करता है
न जाने क्यों मगर इंसान कुछ यूं करता हैमौत की तरफ दौड़ता है और जिंदगी से प्यार करता है
की ज़िंदा क्या हैं ? ज़िंदगी क्या है?…तेरे साथ हो तो ज़िंदगी वरना तो महज़ ज़िंदा हैं।
कि कौन कमबख्त कहता है कि बड़ी सुकून की नींद आ जाती है रात मेंकाली से काली रात भी नाकाम हो जाती है खाली पेट सोने की कोशिश में
छलावा ज़माने का अब मज़ाक लगता है,अपनों ने ही जब लूटा हमें तो बड़े से बड़ा लूटेरा भी अब बेचारा लगता है…
कि फिज़ूल जिया जो जितना भी जिया हमने,जब दुनिया के लिए जिया तो क्या ही जिया हमने।
जिन्होंने वादे किये हर वक़्त साथ देने के,मारे वक़्त वो उस वक़्त दिखाए नहीं दिए ।
ज़माने कि शोर से दूर वो जो तेरे घर हैँ मुझे वहां सुकून मिलता हैँजैसे दरिया के नाविक को शीतल चांदनी से बिछे तालाब मे आराम मिलता हैँ
सब कुछ सब के मुकद्दर मे नहीं होता हैँ कुछ कि झोली खालीपन से भरी होती हैँ